Monday, April 3, 2017

An invitation एक न्यौता

एक न्यौता

तेरा पैग़ाम कविता के ज़रिये आया है
एक हक़, एक न्यौता फ़रमाया है

कुछ लफ़्ज़ों की फरमाईश हुई
एक चोरी छुपे ख़्वाहिश हुई

किस लौ से चिराग़ सुलगाया है

ख्यालों की महफ़िल हुई रौशन
वादे जो थे अधजले, उन्हें फिर सुलगाया है

न्यौता जो आया है
सर आँखों तेरा सरमाया है

पर मेरे लफ़्ज़ों की दवात है सूखी
कलम भी कहीं रख कर है छूटी

तेरा पैग़ाम्बर यूँ ताँके है मुँह
किन लफ़्ज़ों से उसे जवाब दूँ
क्या खाली हाथ लौटा दूँ

भूली बिसरी यादों के
कुछ बचे खुचे रँग हैं
एक लम्हे में घोल
इन्हें तस्वीर में सजाया है

अधूरे वादों का क़र्ज़ चुकाया है
तेरे न्यौते को यूँ लौटाया है

4/3/2017


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