Sunday, April 24, 2016

सेक


सेक 


चढ़ते दिन के सवेरे में
जब मिले थे हम रस्ते में
अभी सायों का शोर था

कुछ ख्वाब थे उधड़े उधड़े
कुछ ख्वाब बने बनाए
कुछ ख्वाब थे रौशन रौशन
कुछ ख्वाब रात के साये

उगते सूरज के
उतावले थे हम
कब पौन फ़टे
और साये घटें

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लो, अब आ पहुंचें हैं
उम्र की दोपहर पे
सूरज का नाँच है सर पे
ज़िन्दगी का शोर पल पल में
और साये हैं सब पाँव तले

फूंक फूंक कर
सुलगाये थे कोयले
अब ये जल उठें हैं
हमरी सांसों से

एक धुआं है रल रहा
हर ख्वाब में
एक सेक हैं फ़ैल रहा
दूर फलक तक

हर पेड़ पर
झिलमिला रहें हैं पत्ते
और फ़ल हैं पके हुए
इसी सेक के

आज उन ख्वाबों का
बुन लिया है आशियाना
जो बटोरे थे तिनके
हमने राह पर

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खुल गए हैं रस्ते दूर तक
यह इकरार मंज़िल का हैं
दोपहर की ढलती धूप में
एक इज़हार साहिल का हैं

शुक्र है इस दिन का
शुक्र है इस सेक का

निकल गया है डर
सायों का
जबसे सुना है
सायों का
इस सेक पर
असर नहीं होता



April 24, 2016