Monday, April 17, 2023

दोस्ती की बातें


तड़का 


कॉलेज के कुछ किस्से 

बासे नहीं होते 


कच्चे मज़ाक़ का नींबू निचोड़ो 

हसीं का हल्का सा नमक छिड़को  

फिर उन्हें तड़का लगा के दोहराओ


तो एक छोटी सी याद भी 

खोमचे की टिक्की की तरह 

चटपटी हो जाती है 


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गप-शप 


पुराने जूतों की जोड़ी

जो पैरों में घिस के ढल जाती है 


कालेज की फटी हुई टी-शर्ट 

जो अब भी फेंकी नहीं जाती है 


धुँधली फ़ोटोएँ -"स्कैन" की हुईं   

जो हाथों में फिर चमक जाती हैं   


मीठी गालियों की एक गिलौरी  

जो ज़ुबान पे ताज़ा हो जाती है


बचपन के दोस्तों से गप-शप  

यूँ ही दिल को बहलाती है 


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दो नस्लें 


कुछ दोस्त मिलते हैं 

सिर्फ़ एक हिसाब लेने के लिए:

 

देखो मेरा ओहदा ! 

मैं हूँ कितना महान 

देखो मेरा मकान! 

है कितना आलीशान   

मेरी शोहरत फैली है - दूर दूर 

है दुनिया मेरी मुट्ठी में - चूर चूर 


और अब बताओ 

तुम कैसे हो?


कुछ और दोस्त हैं 

जो अलग ही हिसाब रखते हैं:


कहो, कैसी कटी ज़िन्दगी? 

बताओ कुछ अपनी, कुछ अपनों की 

सपने जो टूटे - उनका बताओ 

अपने जो छूटे - उनका बताओ 


जो जानते हैं हमें बचपन से 

हमारी हंसी, खुशी और डर 

पहचानते हैं हमें - हमसे बेहतर


कहो, कैसा रहा रस्ता?

कहाँ गिरे, कहाँ लगी चोट 

क्या खोया, क्या लुटाया  

क्या था सच, क्या खोट  


जो दर्द का हिसाब 

हम खुद से ना कर पाते हैं 

वह दोस्त करवा देते हैं 


इन दोस्तों के आईने में 

हम उनके और वह हमारे 

अक्स को पहचान लेते हैं 


जब दुनिया के चक्कर में 

हम खुद से खो जाते है 

तो एक बचपन का दोस्त ही 

याद दिलाता है:


यार - तू ऐसा ना था 

क्यों क्या हुआ? 

छोड़ यह दिखावा

बता, हाल क्या है?




April 17, 2023

Friday, September 3, 2021

कहानी मीरा की The Story of Mira

 कहानी मीरा की 

The Story of Mira


We adopted Mira in Nov 2001, when she was four months old. I wrote this parable soon thereafter, from January 18 through March 13, 2002. 


We always wanted to have an open adoption which meant not hiding from Mira the truth of her birth. But there were many questions: How do we talk to a child about adoption? When do we begin the conversation?  How do we explain the difficult truth of the choices adults make? The answer we came to was to tell her the truth in an age appropriate way.  Most children begin to wonder where babies come from between the ages 4 and 5.  So, I wrote this parable to prepare myself for the situation, with the hope to answer the first time Mira asked the question: where did I come from? 

Sure enough, one evening as I read her a book at bedtime, she asked the question. Quietly, I shut the book, and slipped into this tale. I told her an abbreviated version of her adoption story in Hinglish - an odd mixture of Hindi and English she was exposed to at our home.  Her eyes lit up, but it wasn't clear to me how much she had understood - only that she had grasped a few bits of the story. 

Much later, when her Hindi got better, I read her this story.  Again, I don't recall whether she understood the parable. I only remember that we both laughed a lot as she recognized names of her cousins and  knew the neighborhood ducks and rabbits mentioned in the story. By the time she was seven, she was too old for the story. Her curiosity had burgeoned to ask a more specific question: how was I really born? where and from whom? That was a much harder conversation, as every adoptive parent knows. By then, I hoped that this parable had served its gentle purpose of reminding her that she was cared for before she came to us and we welcomed her with love. Secretly, I hoped that this parable had softened the blow of the truth to come. 


So, here is the parable of how Mira was adopted, told to her 4 year old. 



एक था राजा, और एक थी रानी। दोनों एक बड़े से शहर के एक छोटे से घर में रहते थे। उनके घर के पास कईं छोटे छोटे तालाब थे, जिनमें नन्हें नन्हें पंछी और तरह तरह के फूल बस्ते थे। तालाब के पास ही एक बड़ा सा किनारा था - एक समुन्दर का। रोज़ जब मीठा सा सूरज धूप बिछाता तो बस्ती के सभी पंछी और बच्चे धूप समेटने आ जाते। शाम तक हरी घांस के टीलों पर और गली गली के झूलों पर बच्चे खेलते रहते।  


एक दिन मीठी धूप में बैठते हुए रानी ने एक गहरी साँस ली। राजा ने रानी से पूँछा "इन हरी घांस के टीलों और इन खिलखिलाते फूलों के बीच, तुम यूँ उदास क्यूँ हो?" रानी बोली "इन फूलों के साथ खेलने वाली हमारी भी एक खिलखिलाती परी होती तो कितना अच्छा होता।  वह भी इनकी सुगंध बटोरती, इन बतखों के साथ कतार बांधती, हवाओं को गीत सुनती और भागते खरगोशों की ओर उंगली उठा के हैरान होती। काश! हमारी भी एक बेटी होती।"


राजा का मन भर आया।  उसने कहा, "रानी, तुम उदास मत हो।  कईं सालों से हम एक परी अपने बीच ढूंढते रहे पर पा ना सके।  अब हम एक परी दूर देश से ढूंढ कर लाएंगे।" दूर एक बड़े देश के बड़े शहर में राजा और रानी के सब परिवार के प्यार वाले लोग रहते थे।  राजा और रानी सात समुन्दर पार उड़ कर अपने परिवार के देश गए।  


वहां उन्होंने बैठ कर अपने घरों में सब को कहा कि हम दूर सात समुन्दर पार उड़ कर एक नन्ही परी को ढूंढ़ने आये हैं।  यह सुन कर परिवार में सब बहुत खुश हुए।  ताली बजा कर सोनाली बोली "आप परी को कहाँ पर ढूंढोगे?" हंसती हुई शगुन बोली "नन्ही परी का नाम क्या रखोगे?" कन्नू और कनक बोले "परी के साथ तो हम बहुत खेलेंगे।"


ज़ोर शोर से राजा और रानी ने परी की तलाश शुरू कर दी।  कईं दिनों तक वह दोनों उस बड़े शहर में जगह जगह एक नन्ही परी को ढूंढते रहे।  छोटी छोटी गलिंयों में, बड़े बड़े घरों में, शहर के चारों कोनों में जा जा कर उन्होनों सब से पूछा "ज़रा बताओ! हमें एक नन्ही परी कहाँ से मिलेगी?" किसी ने कहा - "हवा से पूछो, उसे सब मालूम है - वह हर जगह पहुँचती है।" किसी ने कहा - "जाओ! बादल से पूछो, वह हर जगह बरसता है।" किसी ने कहा - "जाओ! फूलों से पूछो, वह सब परिओं के साथ खेलते हैं।"


ये सब सुन कर राजा और रानी परी की तलाश में आगे निकल पड़े।  रानी ने हवा से पूछा "क्या तुम्हे एक नन्ही परी का पता है?" हवा बोली - "मैं हर जगह उड़ कर हो आई हूँ पर मुझे कोई खबर नहीं किसी नन्हीं परी की।" रानी उदास हो कर आगे निकल पड़ी। राजा ने बढ़ कर बादल से पूछा - "क्या तुम्हे पता है एक नन्ही परी कहाँ मिलेगी?" बादल बोला - "मैं हर जगह जा कर बरस चुका हूँ, पर मुझे किसी परी का पता नहीं मिला।" राजा मायूस हो कर आगे निकल पड़ा। फिर एक बड़े से बगीचे में पहुंच कर राजा और रानी ने बगीचे के एक एक फूल से पूछा - "क्या तुम्हे एक नन्ही परी का पता मालूम है?" सब फूल, एक साथ मिल कर बोले - "हमारे बगीचे की मालकिन से पूछो, उसे पता है।  वह सब परिओं की खबर रखती है।"


राजा और रानी बगीचे की मालकिन से मिले और उससे बोले - "हम सात समुन्दर पार से आये हैं। वहां एक बड़े से शहर के एक छोटे से घर में रहते हैं।  हमें एक नन्ही परी की तलाश है।  क्या आप हमारे लिए एक परी ढूंढ सकती हैं?"


मालकिन मुस्कुरा उठी, और बोली - "मेरे बगीचे में तो हज़ारों परिआं हैं, तरह तरह की।  छोटी, बड़ी, नटखट, नादान।  तुम्हें कैसी परी की तलाश है? तुम उसे कैसे पहचानोगे?" रानी बोली - "रोज़ वह मेरे सपनों में आती है।  अपनी काली काली आँखों से एक टकटकी लगाती है।  उसके चौड़े माथे पर काले काले घने बाल बिखरते हैं।" राजा बोला - "रोज़ वह मेरे सपनों में भी आती है।  उसकी छोटी छोटी उंगलिआं मेरी उंगली को पकड़ती हैं और फिर वह हलके से मुस्कुराती है।"


बगीचे की मालकिन यह सुन कर कहने लगी - "एक ऐसी ही परी है मेरे बगीचे में।  मैं उसे ढूंढ कर तुम्हारे पास लाऊँगी।"


फिर एक दिन मालकिन ने राजा और रानी को बगीचे में बुलाया और एक बड़ा सा गुच्छा उनकी गोद में रख दिया।  उस में एक नन्ही परी थी।  उसके चौड़े माथे पर काले काले बाल बिखरे हुए थे।  वह काली काली आँखों से रानी की ओर टकटकी बांधे देखती रही। रानी के आंसूं भर आए - "अरे! यह तो वही नन्ही परी है जिसकी हमें तलाश है।" फिर उस नन्ही परी ने अपनी छोटी छोटी उँगलियों से राजा की एक उंगली पकड़ ली और हलके से मुस्कुरा दी।  राजा बोल पड़ा - "अरे! यह तो वही नन्ही परी है जो हमारे सपनों में आती है।" यह सुन कर परी खुशी से बुलबुले बनाने लगी।  राजा और रानी दोनों हँस पड़े और कहा - " इसे हम अपने साथ दूर एक बड़े से शहर में अपने छोटे से घर में ले जाएंगे - हमेशा के लिए।" बगीचे की मालकिन यह सुन कर बहुत खुश हुई और उसने परी को गुच्छे में लपेट कर राजा और रानी को सौंप दिया।  


पहले राजा और रानी परी को अपने परिवार में ले आए जहाँ परी के दादा और दादी उसे मिल कर बहुत खुश हुए। दादा ने उसे गोद में खिलाया और दादी ने उसे शहद चटाया।  गली मोहल्ले के सभी पड़ोसी परी को देखने आए।  सब ने उसे सराहा, गाने सुनाए और खिल खिल के हँसाया।  जब सब ने राजा और रानी से पूंछा कि इस परी का नाम क्या है तो वह बोले - "यह है मीरा, प्यार भरी हमारे दिल की राज कुमारी।" कनक और कन्नू ने मीरा को गोद में लेकर खिलाया और "मीरा, मीरा" का शोर मचाया। मीरा की दादी और बुआ ने उसे छोटे छोटे गहने पहनाये।  


फिर परी अपने नाना और नानी से भी मिली। नाना ने उसे अपनी बड़ी बाँहों में ले कर पुचकारा और नानी ने उसके  सँवारा और परी को सुन्दर कपड़ों में सजाया। परी की बहनें, शगुन और सोनाली, जब उस से मिलने आईं तो बहुत धूम मचा कर दोनों ने मीरा को उठाया। "पहले मैं, पहले मैं" कह कर दोनों लड़ पड़ीं। मीरा की मासी ने बारी बारी मीरा को उनकी गोद में बिठवाया। सोनाली ने कई सवाल पूंछे - " यह बोलती नहीं है? इसको बैठना नहीं आता? क्या यह रोटी नहीं खाती?" शगुन हँस कर बोली - "चल पागल! यह अभी छोटी है -  जब यह बड़ी हो जाएगी तो यह बोलेगी, बैठेगी और रोटी भी खायेगी।"


कई दिनों तक इसी तरह परी राजा रानी के परिवार से मिलती रही, खेलती रही।  एक दिन जब लौटने का वक़्त आया तो सोनाली ने पूँछा - "अगर आप इसे अपने देश ले जाओगे तो हम इसके साथ खेलेंगे कैसे?" रानी बोली - "इस के साथ खेलने अब तुम हमारे देश आना।  और यह भी तुमसे मिलने ज़रूर आएगी।" राजा और रानी के परिवार ने परी को बहुत प्यार से विदा किया और एक दिन, उड़ कर, राजा, रानी और परी वापिस अपने बड़े से शहर के छोटे से घर में लौट आए।  


अपने छोटे से घर में पहुँचते ही परी से मिलने बहुत लोग आये - सब राजा और रानी के दोस्त, जान पहचान वाले और प्यार वाले।  सब को बड़े गर्व से राजा और रानी ने कहा - "यह मीरा है - हमारी दुलारी बेटी।" 


यह सुन कर हरी घांस के टीले पर सब फूल मुस्कुरा उठे।  हवाओं ने कई गीत गाये और बतखों ने लम्बी कतारें बाँध कर मीरा का स्वागत किया।  भाग कर खरगोशों नें शहर के सब बच्चों को ख़बर दी - "एक है मीरा। राजा और रानी की बेटी।  दूर देश से यह परी अब हमारे बीच आई है।" सब बच्चों नें हँस कर ज़ोर से तालिआं बजाईं।  और मीरा भी खिलखिला उठी।  


 






  




 

Tuesday, June 2, 2020

Mortality

The truth that trumps all other truths. 
A truth that you can't escape. 

Doesn't matter whether you accept or reject it. Who cares if you shout at it and fight it. Get mad at it. Laugh or cry at it. Beg and plead with it. 

Some say accepting this truth is the only path. But even your acceptance doesn't matter.

At best, you can simply face it.

Look at it as you would: the open sea, a thunderstorm, a sunset or a meteor blazing the sky. With out any emotion. A vista that you behold after the emotion it evokes has washed over and gone. After the tears have dried up, the laughter has ceased and all thoughts have drained from your mind. 

You and your mortality - are one.


Poem by Amrita Pritam


मौत से परिचित है हम

अक्सर हमारी ज़िन्दगी

उसका ज़िक्र करती रही


With death 

          I'm well acquainted

          my life often spoke of it


ਮੌਤ ਤੋਂ ਵਾਕ਼ਫ਼ ਅਸੀਂ

ਅਕਸਰ ਇਹ ਸਾਡੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ

ਉਸ ਦਾ ਜ਼ਿਕਰ ਕਰਦੀ ਰਹੀ




July 10, 2013 

Monday, October 21, 2019

खानाबदोश Nomad

खानाबदोश 



खानाबदोश मैं ख़ामख्वाह नहीं

गुमशुदा हूँ लेकिन गुमराह नहीं 



रास्ता हूँ बंजारा, कोई मंजिल नहीं

हैरत का हूँ मारा, कहो आवारा नहीं 


खामोश हूँ यूँही पर ख़फ़ा नहीं

बेज़ुबान हूँ तो क्या, बेवफ़ा नहीं



नोक हूँ कलम की जो रुकी नहीं

स्याही हूँ सच की जो धुली नहीं



ज़र्रा हूँ ज़मीर का जो बुझा नहीं

दफ़न हूँ कब से पर मरा नहीं




खानाबदोश मैं ख़ामख्वाह नहीं



khaanaabadosh main khaamakhvaah nahin gumashuda hoon lekin gumaraah nahin raasta hoon banjaara koee manjil nahin hairat ka hoon maara kaho aavaara nahin khaamosh hoon yoonhee par khafa nahin bezubaan hoon to kya, bevafa nahin nok hoon kalam kee jo rukee nahin syaahee hoon sach kee jo dhulee nahin zarra hoon zameer ka jo bujha nahin dafan hoon kab se par mara nahin khaanaabadosh main khaamakhvaah nahin



From Google Translate [can not vouch for accuracy]



خانہ بدوش میں ٹھیک نہیں جاتا کھو گیا لیکن گم نہیں ہوا رستہ ہن بنجارہ کوئی منزل نہیں میں حیرت زدہ ہوں ، کہو کہ میں مبہم نہیں ہوں میں خاموش ہوں لیکن آپ سے ناراض نہیں ہوں کیا ہوگا اگر میں بیوقوف ہوں ، کوئی کافر نہیں میں قلم کی نوک ہوں جو رک نہیں رہا ہے میں سیاہی ہوں جو نہیں دھو رہی ہوں مجھے ضمیر کا یقین ہے جو بجھا نہیں ہے مجھے کافی دن سے دفن کیا گیا ہے خانہ بدوش میں ٹھیک نہیں جاتا

Sunday, May 6, 2018

Telling Tales of The Parting

This post is in reference to the play The Parting, written by Salil Singh & Anurag Wadehra, produced by Enacte Arts and Noorani Dance 

The Parting: The Play

August 1947. The Partition of India and Pakistan. 15 million people displaced. 2 million dead.
A provocative and compelling theatrical performance woven from innumerable true life accounts blending theatre, dance, music and multimedia.

The play is inspired by true stories from witnesses of the 1947 Partition of India and Pakistan. It premiered in January 2018 at Z-Space in San Francisco; and based on popular reception, was performed at the Hammer Theatre in San Jose, California, in March 2018.  The Parting was produced by EnActe Arts and Noorani Dance, written by Salil Singh and Anurag Wadehra. The original production was directed by Salil Singh and the San Jose production by Vinita Sud Belani and Farah Yasmeen Shaikh, both with an original score composed by Raaginder Singh Momi and visual design by David Murakami.

The Parting [preview]



History & Discussion 

An hour-long discussion on the Partition project, with surviving witnesses, citizen historians, and the creative team on The Partition of India: Telling Tales of the Parting

Recorded at: Talks At Google

The Stories of The Parting

“The human history of partition has a lesser status than the political history.”
Urvashi Butalia

Telling the history of the people, and not of the politicians: this was our mantra for the play.

Over the course of the past seventy years, there has emerged a grand narrative of the Partition of British India as told in the history books. It focuses on leaders like Gandhi, Nehru, Jinnah, Patel and Mountbatten, and elaborates their visions of nation states and empires built on differing ideologies. This telling of the history devolves quickly into conflicts of personalities and policies among these men. It is dangerous and naive for it encourages us to either root for the leaders as heroes or deride them as villains. Often, this version glorifies the struggle for independence from the British but pays lip service to the toll paid by the millions who were killed or uprooted in the process. Even less is explored of why the country had to be partitioned and specifically, how this parting affected the millions of people living in relative peace in distant villages.

The Partition wasn’t a case of malicious intent that we can attribute to a few intransigent leaders. As Nehru implied [1], they were tired men who could not reconcile their differences to share power among themselves. Tragically, as August 1947 loomed and all hope of political settlement faded, there was a slow dissolution of the British colonial state with no clear operational plan to inform, guide or protect millions of people who were to be affected by such a cataclysmic event. Confusion, disbelief and shock were the dominant sentiments among the masses.

In remote villages and different communities, how did the people experience the partition? What were their perceptions and experiences? How did they react to the cascade of events?

We chose to center the play on these questions and tell stories of the people who lived through the event.  The play is based on a combination of such stories: some imagined from the plight of the millions of refugees, a few ripped from the headlines of the era that went on to become legends in modern times and some that were retrieved from scholarly research and oral histories of survivors. These stories are not meant to be literal reenactments of true events. Yet, they are all based on the real and lived experiences of millions.

We did not choose these tales for their horror or shock, although every story touches upon the atrocities committed by all sides. Instead, we selected them to showcase a broad spectrum of experiences - from the repugnant to the redeeming -  as shared by the different communities. In telling these tales, our aim was to highlight the humanity we all lost - and occasionally redeemed - through such experiences. And most of all, we selected these stories to ask a few questions that lay at the fault lines of Partition: Why did this happen? How did we turn on our neighbors? Can this ever happen again? Today, with Partition a forgotten memory for most people, such questions remain unasked and unanswered at our peril.


The narrative of the play focuses on the fate of a few families and individuals who escape in harrowing circumstances across the border, while their neighborhoods disintegrate into civil war after living peacefully for hundreds of years. We follow the characters over time to show the price of human conflict. The narrator of the play, Mamta, is a fictional character whose journey stands for the experiences of thousands of women who lost their loved ones - and whose lives and bodies bore the brunt of violence from all sides.  

Here are the synopses and the origins of a few stories in The Parting.

The Tale of the Bookmark
We adapted the story of Hamid, a child who escaped to Pakistan with his family, from an anecdote we encountered in researching survivor tales. Years later, Hamid cherishes a feather bookmark, the only object he escaped with, as a precious memory of his childhood.

The Tale of the Limb Fitter

Another true and poignant story is that of Ghulam Ali, a limb-fitter in the British army, who was trapped between two new nations and to be accepted anywhere, was required to prove his loyalties to each side. This was an all too common occurrence among refugees whose citizenship remained fluid despite each nation’s intention to fix it. We discovered this story through a delightful episode of Urdu oral storytelling performance called Dastangoi. The source of this story is the nonfiction scholarly book The Long Partition by Vazira Zamindar, who retrieved Ghulam Ali from the oblivion of bureaucratic papers.

The Tale of Boota and Zainab  

The main story of the play is of star-crossed lovers Boota and Zainab. It is a true story that was covered extensively by newspapers in its time. I discovered this story many decades ago in the footnote of a book Freedom at Midnight. Even today, it is contested by communities on both sides - each claiming its own version over the years. Boota Singh was a Sikh farmer who gave shelter to a Muslim woman Zainab and over the years started a family with her. Later, Zainab was forcibly separated from her child and husband and sent back to Pakistan. How Boota crossed religious and political borders in an attempt to reunite his family has taken the form of a modern day legend and been adapted for film on more than one occasion [2].

For the play, we extended this story beyond the star-crossed lovers to show how Boota and Zainab started their family from two divided communities during Partition and slowly built a life from the ruins. In our play, Zainab is a strong woman who is wronged twice by the two nations that are, ironically, bent on protecting her honor.  

Zainab was forcibly sent back to Pakistan when the two countries created programs to exchange the women that had been abducted by each side and return them to their families. This was done to restore the honor of the two communities. Many women were sent back even though they had created a new life, and even when they did not wish to return due to the stigma attached. This Abducted Persons Recovery & Restoration Bill remained in effect until 1956.

Finally, we chose to close this story with the daughter of Zainab and Boota to raise the question of identity: who is a child born across nations and religions, and what is to become of her?
The Tale of Lal Chand and Bahadur Khan
This is a fictitious story of two neighboring families - one Hindu, another Muslim - who have lived together for centuries in Lahore. After Partition, as Lal Chand is forced to flee Pakistan, he has to decide whether to entrust his property and assets to his Muslim neighbor Bahadur Khan. There are thousands of true stories of such neighbors - Hindus, Muslims and Sikhs - living in same villages for centuries who had to make these fateful decisions in their flight to escape. There were neighbors who protected, honored, rescued and, in many cases, saved properties and assets of others for decades. And there were many others, sadly, who betrayed, savaged and looted their neighbors. The question we wished to raise with this story is: how does a lifetime of trust between two neighbors fall apart? And can it ever be restored?

The story of Lal Chand and Bahadur Khan was inspired by the narratives captured by Urvashi Butalia in her seminal work on Partition The Other Side of Silence. In an article on Partition and Memory, Butalia narrates the incident of a Sikh survivor who comes to regret his lack of trust for his Muslim neighbors and decades later, returns to his village seeking to better understand and perhaps redeem his acts.
The Tale of Veerji and Kuljot
Violence towards women had a special significance during Partition, as each community was sensitive to defending the honor of its women. Thousands of women either killed themselves or were killed by their own communities to save them from the shame of being violated. Conversely, women of opposing communities were defiled in especially heinous ways to dishonor the other side. This is a sensitive subject and we chose to address this indirectly through the fictitious story of a brother who is eager to save the honor of his sister. This story is based on a short discourse Total Eclipse by Anurag Wadehra on the significance of honor and sacrifice in Partition.

Beyond this tale, we chose to bring to life the poem Majboor [Forced] by Amrita Pritam in a novel way. It’s a seminal poem on the price paid by displaced women for the independence of two nations.

Saturday, November 11, 2017

नज़र Glance

नज़र 

हर जो मिलता है राह में मुझे
ऐसी नज़र से देखता है क्यूँ
मैं किस राह पर हूँ, क्यों हूँ
उसको पता हो, मुझको नहीं


Glance


Why do they look at me
As if they know
Why I walk this path
More than I do

Monday, May 15, 2017

Total Eclipse - Snippet 2



सूरज को आज ग्रहण लग गया है
एक किरण, शायद आख़री और अकेली
मेरे हाथ में रह गई है

पर मैं घोर अँधेरे में गुम हूँ
अब यह मुझसे नहीं संभलेगी
लो, यह है तुम्हारे हवाले

इसे दूध पिलाना अमन का
और चूरी खिलाना इश्क़ की

और ध्यान रहे
ना पड़े एक भी छाँव
इस ग्रहण की


words of the father
as he leaves his baby
in the arms of a woman
who's nursing her child in her lap



ਸੂਰਜ ਨੂੰ ਅੱਜ ਗ੍ਰਹਿਣ ਲੱਗ ਗਿਆ ਹੈ
ਇਕ ਕਿਰਨ, ਖੌਰੀ ਆਖਰੀ ਤੇ ਅਕੇਲੀ
ਮੇਰੇ ਹੱਥ ਵਿਚ ਰਹਿ ਗਈ ਏ

ਪਰ ਮੈਂ ਘੁੱਪ ਹਨੇਰੇ ਵਿਚ ਹਾਂ ਗੁਆਂਚਾ
ਹੁਣ ਮੇਰੇ ਕੋਲੋਂ ਇਹ ਨਹੀਂ ਸੰਭਲਣੀ
ਲੋ! ਇਹ ਹੈ ਤੁਆਡੇ ਹਵਾਲੇ

ਇਹਨੂੰ ਦੁੱਧ ਪਿਲਾਣਾ ਅਮਨ ਦਾ
ਤੇ ਚੂਰੀ ਖਵਾਣਾ ਇਸ਼ਕ ਦੀ

ਤੇ ਧਯਾਨ ਰਹੇ
ਨਾ ਪਵੇ ਇਕ ਵੀ ਛਾਂ
ਇਸ ਗ੍ਰਹਿਣ ਦੀ

words of the father
as he leaves his baby
in the arms of a woman
who's nursing her child in her lap